जलना तो मुझे अब भी है।
कवियत्री : पवित्रा लामा
मैं फिर उसी मोड पर खडी रह गई
जिस मोड पर आकर करवट ली थी
जिन्दगी की इक नई हसरत ने
कुछ कसमें, कुछ वादे, कुछ सपने
मेरी झोली में डाले थे वक्त ने
मैं उसी मोड पर खडी रह गई ।
क्या हुआ कि मुस्कुराती कलियों पर गिरी है गाज
क्या हुआ कि फिर से मैं अकेली हूँ आज
मेरे साथ चलने वाले वो लोग कहाँ हैं ?
मेरे रूह में साँस भरने वाली वो आह कहाँ हैं ?
जिनके कदमों की आहट मुझे रखती थी हरपल जिन्दा
जिनके दम पर मौत भी होती थी शर्मिन्दा !
कहाँ हैं वो हाथ जो पोंछते थे कभी मेरे आँसू !
वो लोरियाँ वो जलती मशालें कहाँ हैं ?
जब कभी भूख से काँपती थी मेरी अँतडियाँ
मुझे थपकी देकर सुलाते हाथ कहाँ हैं?
क्या अर्थ कुरेदूँ इन सन्नाटों का मैं
क्या मतलब लगाऊँ इन आभासों का मैं
कि मुझे मेरी मिट्टी ने दुत्कार दिया है
मेरी उपस्थिति को सिरे से नकार दिया है
मेरा होना, होना और बस होना
मेरी काया और मेरा साया भी मेरा न होना
क्या सत्ता के नारों के बगैर मैं कुछ भी नहीं
क्या विरोधी उद्गारों के बगैर मैं कुछ भी नहीं
मैंने तो माँगा था हक एक एक भूमिहर के लिए
मैंने चाहा हर कोई जिए तो सर उठा के जिए
जिस भूख की आग में सरहदें बिक जाया करती हैं
अस्मत, इज्जत, इमान दाँव पर लग जाया करती हैं
उस भूख की आँच पर भी मैं जिन्दा थी हवाओं के दम पर
मैं थी जिन्दा, थी खडी, बस दुवाओं के बल पर
मैं थी तो टिमटिमाते थे तारे, खुली आसमानों पर
मैं थी तो रोशन थे उम्मीद हर आँखों पर
मैं तो देह हूँ जलती तो मैं तब भी थी
मैं बस देह ही हूँ जलना तो मुझे अब भी है ।
अँगारों भरी राहों में
चलना तो मुझे अब भी है
देह हूँ,
जलना तो मुझे अब भी है।
जलना तो मुझे अब भी है ।
No comments:
Post a Comment